आजादी के 67 साल बाद भी शर्म की बात है…

मोदी ‘मेक इन इंडियाÓ के नाम पर देश में क्या पैदा होने के सपने दिखा रहे हैं?

देश में दालों व प्याज की कीमतें आसमान पर और प्रधानमंत्री मोदी विदेशी आसमान पर!

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यह विड़ंबना ही है कि कृषि प्रधान भारत में प्रमुख कृषि उपज दाल, चावल, शक्कर, प्याज, गेहूं तक विदेशों से आयात करना पड़ रहा है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश में जोर-शोर से मेक इन इंडियाÓ का नारा देकर वहां की कंपनियों को भारत में निवेश का न्यौता दे रहे हैं। समझ में नहीं आता आखिर मोदी मेक इन इंडियाÓ के नाम पर देश में क्या पैदा होने का सपना देशवासियों को दिखा रहे हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी यदि कृषि जिंसों का आयात कर हम विदेशी कंपनियों पेप्सी, कोकाकोला, कैडबरी, केएफसी, मैकडोनल्ड, डोमिनो को मेक इन इंडियाÓ के नाम पर आमंत्रित करते हैं तो निश्चित ही देश के लिए यह शर्मनाक बात है। लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था जय जवान, जय किसानÓ, मगर आज हालात यह है कि सेना के जवान दिल्ली में आमरण अनशन कर रहे हैं और किसान मरने के लिए मजबूर है? देश  के व्यापारी मुनाफाखोरी में लिप्त हैं! और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी निवेशकों के बलबूते देश की गरीब, मजबूर जनता और किसानों को कौन से समृद्ध भारत के सपने दिखा रहे हैं? जो समझ से परे है?

खाने-पीने की वस्तुओं के दाम हर दिन बढ़ रहे हैं। एक महीने में 15 से 38 फीसदी तेजी आ गई है। लोगों के किचन का बजट गड़बड़ाने लगा है और उन्हें ज्यादा दाम चुकाना पड़ रहे हैं। व्यापारियों के अनुसार एक महीने और दाम कम होने की उम्मीद कम है। भारत में लगभग पिछले 20 वर्षों से दालों का अभाव बना हुआ है। यही हाल खाद्य तेलों का है। दालों में हम अपनी जरूरत का 60 प्रतिशत पैदा करते हैं और 40 प्रतिशत दालों का आयात साल दर साल किया जाता है। इस बार बेमौसम बरसात से लगभग सभी फसलें बिगड़ गई हैं। उनमें दालों की फसलें भी शामिल हैं। अभी दालों के भावों में 60 से 70 प्रतिशत का उछाल आ गया है। इसका कारण असाधारण अभाव नहीं है, बल्कि यह व्यापारिक धारणा है कि दालों की कमी बढ़ती ही जा रही है और वही मूल्य बढऩ़े का आधार है।  देश में खाद्य तेलों में भी सर्वाधिक 60 प्रतिशत की कमी चल रही है और इतना ही खाद्य तेल हर साल आयात होता है।

शक्कर हो, चावल हो या फिर दाल, रोजमर्रा की इन वस्तुओं के दामों में तेजी जारी है। लगातार बढ़ते दाम के चलते प्रति परिवार 350 रुपए से ज्यादा भार बढ़ गया है। प्याज की कीमतें उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर होती जा रही है और इसका भाव 80 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया। उधर, केंद्र सरकार ने एमएमटीसी से 10 हजार टन प्याज आयात करने को कहा है। उत्पादन में गिरावट तथा प्याज का मौसम न होने के दौरान आपूर्ति के लिए रखे गए प्याज की सुस्त आपूर्ति के कारण प्याज की कीमतों में तेजी आ रही है।   चना करीब ढ़ाई साल के ऊपरी स्तर पर है। उड़द, मूंग समेत सभी दालें भी इस दौरान महंगी हुई हैं। एक्सपट्र्स का मानना है कि सप्लाई कम रहने से दिसंबर तक महंगी दालों से निजात मिलना मुश्किल है। आने वाले दिनों में दालों की कीमतें 15-20 फीसदी और चढ़ सकती हैं। इस साल चने दाल की कीमत 6800-7,000 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच सकती है। इसके मुताबिक दालों की कीमतों में 10-15 फीसदी की और तेजी आ सकती है। देश में चने के बाद अरहर की खपत सबसे अधिक होती है।

चार महीने तक नहीं मिलेगी राहत

बड़े दाल व्यापारियों के मुताबिक, आने वाले तीन से चार महीने तक महंगी दालों से निजात मिलने की संभावना कम है। दिसंबर तक चने की सप्लाई बेहद कमजोर रहने की आशंका है। देश में फिलहाल चने का स्टॉक 6 से 8 लाख टन है। जबकि मासिक खपत करीब 3.5 लाख टन है। ऑस्ट्रेलिया से चने का आयात दिसंबर में ही शुरू होगा। ऐसे में देश में चने की उपलब्धता मांग के मुकाबले कम है। उन्होंने कहा कि उड़द, अरहर और मसूर की सप्लाई भी बेहद कमजोर है, जबकि देश में दालों का इम्पोर्ट कम मात्रा में हो रहा है।

चार लाख टन दालें अधिक होंगी इम्पोर्ट

इंडियन पल्सेस एंड ग्रेन एसोसिएशन के अनुसार इस साल देश में 50 लाख टन दाल इम्पोर्ट होने की संभावना है। जबकि कुछ सरकारी अधिकारियों का मानना है कि 60 लाख टन दाल का इम्पोर्ट हो सकता है।  वित्त वर्ष (अप्रैल-मार्च) के दौरान 46 लाख टन दाल का आयात हुआ था। इसमें 19.5 लाख टन मटर, 4.19 लाख टन चना और 8.16 लाख टन मसूर की दाल शामिल हैं।  पीली मटर का इम्पोर्ट इस साल 15 लाख टन होने का अनुमान है, जबकि अकेले कनाडा से 6 लाख टन मसूर की दाल का इम्पोर्ट हो सकता है। इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया से 4 से 5 लाख टन चने का इम्पोर्ट होगा।

दलहन उत्पादन 20.5 लाख टन घटा

अग्रिम अनुमान के मुताबिक देश में 2014-15 के दौरान दलहन का उत्पादन 0.5 लाख टन घटकर 172 लाख टन हो सकता है, जबकि 2013-14 में 192.5 लाख टन दलहन का उत्पादन हुआ था। 2014-15 में देश में 71.70 लाख टन चने के उत्पादन का अनुमान है, जो कि 2013-14 के मुकाबले 23.6 लाख कम है। 2013-14 के दौरान 95.3 लाख टन चना देश में पैदा हुआ था।

….और सरकार के अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि महंगाई दर घटी है!

देश की उपभोक्ता महंगाई दर जुलाई में घटकर 3.78 फीसदी दर्ज की गई। यह जानकारी सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़े से मिली। उपभोक्ता महंगाई के मामले में यह आश्चर्यजनक है कि प्याज और दालें महंगे होने के बाद भी खाद्य महंगाई घटकर 2.15 फीसदी रही, जो जून में 5.48 फीसदी थी। दलहन इस बीच 22.88 फीसदी महंगा हो गया। मसाले और मांस 7.02 फीसदी महंगा हो गए. हालांकि सब्जियां इस बीच 7.93 फीसदी सस्ती हो गईं।

देश में तेल व दाल आयात की जरूरत : केंद्र सरकार

देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्मनिर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। किसानों को तकनीक और बीज के मामले में प्रोत्साहन नहीं मिलने से उत्पादन में गिरावट चली आई। दूसरी ओर आयात शुल्क में 75 प्रतिशत तक छूट दी जाने लगी, जिससे किसान पिछड़े, उत्पादन गिरा और हमारी आत्मनिर्भरता धराशायी हो गई है। इसके बाद भी दलहन और तिलहन के मामले में नर्म रवैया अपनाया जा रहा है, यह खतरे की घंटी है। आयात शुल्क घटाने से विदेशी विनिमय का लाभ इंडोनेशिया, मलेशिया, अमेरिका और ब्राजील के किसानों को मिल रहा है। यदि दलहन-तिलहन के समर्थन मूल्य पर इजाफा किया जाता है तो आयात घटेगा और देश के किसान लाभान्वित होंगे। केंद्र सरकार ने कहा है कि देश में खाद्यान्नों की पर्याप्त उपलब्धता है, हालांकि घरेलू मांग पूरी करने के लिए खाद्य तेल और दालों के आयात पर निर्भरता बरकरार है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर किए गए एक हलफनामे में यह जानकारी दी है। हलफनामे के मुताबिक, हम अभी खाद्य तेल और दालों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हैं। दुनिया के समूचे भौगोलिक क्षेत्र में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.4 प्रतिशत है, जबकि जल संसाधनों का हिस्सा चार प्रतिशत है, परंतु उसके पास दुनिया की 17 फीसदी मानव आबादी और 15 प्रतिशत मवेशियों का सहारा है।

मेक इन इंडिया के नाम पर जड़े जमा चुकी विदेशी

करीब सवा साल पहले ‘अच्छे दिन आने वाले हैंÓ का नारा जब देशभर में गंूज रहा था, तब देश की अवाम एक ऐसे शख्स की ओर आशा भरी नजरों से देख रही थीं, जो युवाओं के लिए रोल मॉडल था, मगर दिन, महीने और साल बीतते-बीतते कुछ ऐसे हालात बनने लगे कि युवाओं के लिए रोल मॉडल बना वह चेहरा देश की सर्वोच्च कुर्सी पर तो विराजमान हो गया, लेकिन उससे जो आशाएं, अपेक्षाएं, आकांक्षाएं थीं, उससे मोह भंग होने लगा। देश की अंदरुनी स्थिति, महंगाई, आतंकवादी घटनाओं से बेखबर शख्स जब विदेश में वाहवाही लूटने लगे तो बरबस ही यह प्रश्न मन में कौंधता है कि आखिर ‘अच्छे दिनÓ का नारा किसके लिए गढ़ा गया था। कहीं अवाम को दिग्भ्रमित करने की साजिश तो नहीं रची जा रही थी। यह प्रश्न इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि देश में एक बार फिर प्याज और तुअर दाल के भाव आसमान छूने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी देश में किसी भी स्थान पर अपने संबोधन में गरीबों, किसानों, मजदूरों और मध्यमवर्गीय परिवारों की समस्याओं का जिक्र तो प्रमुखता से करते हैं, लेकिन इस वर्ग की स्थिति में सुधार नहीं होने से कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर परिलक्षित होता   है। उन्हें पीएम बने पन्द्रह महीने बीत चुके हैं, लेकिन इस दौरान महंगाई अपने उच्चतम स्तर पर है। इसके लिए वे हरदम पूर्ववर्ती सरकारों को कोसते रहते हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री विदेश में देश की छवि चमकाने में लगे हैं। नि:संदेह विदेश में देश की छवि उज्ज्वल बनाना प्रधानमंत्री का ही काम है, लेकिन यह भी सच है कि देश के गरीब, निम्न मध्यम और मध्यमवर्गीय जनता के दु:खों और परेशानियों को दूर करने का काम भी तो उन्हीं के जिम्मे है। विदेश जाकर लाखों रुपए का निवेश बटोरना यदि जरूरी है तो देश के एक बड़े तबके को जो ‘रोज कमाता, रोज खाताÓ है, को सस्ता अनाज, सब्जी और राशन उपलब्ध कराना भी तो उतना ही आवश्यक है। बाजार में 70 रुपए किलो प्याज और 140 रुपए किलो तुअर दाल बिकने के बाद एक बार फिर यह बहस जरूरी हो गई है कि हमारे देश की पहली जरूरत आखिर क्या है? विदेश में देश की छवि को बेहतर बनाना पहली प्राथमिकता हो या अवाम के रहन-सहन का स्तर ऊंचा उठाना प्राथमिकता में शुमार हो।

मांस निर्यात में सबसे आगे हिन्दुस्तानी

वर्ष 2014-15 के दौरान भारत का मीट निर्यात अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंचकर बासमती चावल से अधिक हो गया है। यह जानकारी वाणिज्य मंत्रालय द्वारा उपलब्ध प्रारंभिक रिपोर्ट में दी गई है। दुधारू पशुओं के मांस का  निर्यात 10 प्रतिशत बढ़कर 29 हजार 282 करोड़ रुपए हो गया है, जबकि बासमती चावल का निर्यात 5 प्रतिशत घटकर 27 हजार 598 करोड़ रुपए रह गया है। एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के माध्यम से कुल कृषि उत्पादों का निर्यात वर्ष 2014-15 में 4 प्रतिशत घटकर 1 लाख 30 हजार 458 करोड़ रुपए के स्तर पर रहा है। ताजा फलों, सब्जियों का निर्यात 14 प्रतिशत घटकर 7759 करोड़ रुपए रहा है, जो वर्ष 2013-14 में 9030 करोड़ रुपए के स्तर पर था। इसके अलावा पोल्ट्री उत्पादों, मूंगफली, कोक उत्पादों के निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। गेहूं, डेयरी उत्पाद, दालों के निर्यात में भारी गिरावट दर्ज की गई है। एपेडा के द्वारा 22 कृषि उत्पादों जिनमें चावल, गेहूं, बुफेलो मीट, सब्जियां, फल, दालें व अन्य मीट उत्पाद शामिल हैं, पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा खाद्यान्न आयात पर खर्च होगा

सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा गेहंू, चावल, दाल, तेल, शक्कर और कपड़ा आयात करने में खर्च हो जाएगा। भारत में कृषि को छोड़कर ऐसा कोई दूसरा उद्योग हो तो बताइए, जहां लागत से कम मूल्य पर माल बेचा जाता हो। न किसान को फायदा और न जनता को लाभ, सारा मुनाफा मुनाफाखोरों के पेट में जा रहा है।

विदेशी कंपनियां निर्धारित करेंगी कि कौनसी फसल पैदा हो?

किस फसल की पैदावार सबसे कम है और कहां शोध की जरूरत है, इस बारे में कोई मसौदा तैयार किए बगैर सरकार ने जैव विविध बीज कंपनियों द्वारा तैयार सूची को स्वीकार कर आसान रास्ता चुन लिया है। सबसे बुरी स्थिति यह है कि राज्यों के कृषि विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित संस्थानों ने भी इस रणनीति को अपना लिया है और अब वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चिह्नित फसलों पर शोध कर रहे हैं। भारत में पिछली आधी शताब्दी के दौरान करीब एक हजार किस्में गायब हो गई हैं।अगर हमने खाद्यान्न का आयात शुरू कर दिया तो बहुत से विकसित देश अनाज निर्यात को अपना धंधा बना लेंगे। एक बार हमने अनाज का आयात शुरू कर दिया, तो विदेशी कंपनियां और सरकारें अपने व्यापारिक और दूसरे किस्म के लाभों के लिए, राजनीतिक दांव-पेचों का इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे। यह भी संभव है कि वे शर्तनामे तैयार करते वक्त उसमें तरह-तरह की शर्तें लगाना भी शुरू कर दें, जिससे उन पर हमारी निर्भरता स्थायी हो सकती है।

कृषि में निवेश लगातार घट रहा

जमीन के टिकाऊपन का खयाल किए बगैर उसमें रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों को झोंका जा रहा है। अगले चालीस साल में देश की आबादी 160 करोड़ से ऊपर हो जाएगी। इसके साथ ही खाद्यान्न की हमारी मांग भी लगभग दोगुनी बढ़ जाएगी। पर कृषि के विस्तार के लिए हमारे पास बहुत सीमित संभावनाएं बची हैं। हालांकि खाद्य आपूर्ति बढ़ाने के लिए इसकी जरूरत तो पड़ेगी ही। चिंता की बात यह भी है कि पिछले पच्चीस साल में कृषि में निवेश लगातार घट रहा है। इस क्षेत्र में शोध भी बहुत ज्यादा नहीं हो रहा है। फसलों की पैदावार एक फीसद की रफ्तार से बढ़ रही है। कुछ जगह तो इस पर विराम ही लग गया है। इस संकट को ऐसे भी समझा जा सकता है कि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि के बावजूद सरकार को गेहूं आयात करना पड़ा है।

उद्योगों के नाम पर खेती की जमीनों का किया जा रहा है अधिग्रहण?

इस समय खाद्यान्न की कमी के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, आबादी के अनुपात में खाद्यान्न की वृद्धि न हो पाना। दूसरा, उद्योगों और बस्तियों के विस्तार के कारण खेती की जमीन में लगातार कमी। तीसरा, पुरानी विधियों और बीजों से अब खाद्यान्न उत्पादन में कोई वृद्धि न हो पाना। इसके अलावा खाद्यान्न के रखरखाव में भी भारी खामियां हैं, जिनके चलते लाखों टन खाद्यान्न सड़ जाता है। अब खनन, उद्योग, ऊर्जा उत्पादन, शहरीकरण आदि तेजी से जमीन लील रहे हैं। जो जमीन बची है, उस पर अन्न की पैदावार बढ़ाने का दबाव है।

भूख सूचकांक में स्थान 66 वां

पिछले कुछ सालों में गरीबों पर खाद्यान्न की कीमतें बढऩे की मार तो पड़ी ही, इस दौरान खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी काफी कम हुई। विश्व भूख सूचकांक में भूख से लड़ रहे अ_ासी देशों की सूची में भारत का स्थान छियासठवां है। ग्लोबल इन्वेस्टमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक ऐसे एक सौ अस्सी देशों की फेहरिस्त में भारत का स्थान 94 वां है। वहीं अगर बाल कुपोषण सूचकांक को देखें तो वहां भारत एक सौ सत्रहवें स्थान पर है, सिर्फ बांग्लादेश से आगे।

किसान कर रहे हैं आत्महत्या और उसकी फसल की हो रही है मुनाफाखोरी?

यूपीए सरकार के दस साल में डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्या की। मोदी सरकार के समय भी यह सिलसिला रुक नहीं रहा। महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब, बुंदेलखंड में किसानों की खुदकुशी के मामले बढ़े हैं। तमिलनाडु और गुजरात में भी कुछ घटनाएं हुई हैं। किसानों की खुदकुशी के पीछे सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे कुदरती कारणों के अलावा दूसरे कारण भी हैं। किसानों पर कर्ज का बोझ बढऩे, पैदावार का वाजिब दाम न मिलने और कर नीति की विसंगतियों से लेकर आयात-निर्यात के गलत फैसलों से भी समस्याएं बढ़ी हैं।  देश में खाद्य वस्तुओं की मांग और आपूर्ति में संतुलन बिगडऩे से खाद्यान्न की कीमतें तो बढ़ी हैं, परंतु किसानों का घाटा कम नहीं हो रहा है। इससे किसान संकट में हैं। दाल और खाद्य तेलों के आयात पर हमारी निर्भरता बढ़ी है।

किसानों से मंडी शुल्क वसूला जाता है, जबकि विदेश से आने वाले अनाज पर आयात शुल्क नहीं के बराबर

अपने खून पसीने की मेहनत से देश का पेट भरने वाला अन्नदाता जब स्वयं का ही जीवन समाप्त करने में जुट जाए, तो यह किसी भी राष्ट्र को शर्मसार करने के लिए काफी है। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो  द्वारा 2014 की जारी रिपोर्ट बयां करती है कि भारत में हर पौन घंटे में एक किसान आत्महत्या कर लेता है। वर्ष 2014 में देश में 12 हजार 360 किसानों ने आत्महत्या की है, जो गत वर्ष के आंकड़े 11 हजार 772 से 5 फीसदी अधिक है। बीते सोलह वर्षों का यह सर्वाधिक बड़ा आंकड़ा है।  केन्द्र सहित राज्यों की सरकारें जहाँ प्रतिवर्ष कृषि बजट बढ़ाने की बाते करती हैं, ठीक इसके विपरीत किसानों की आत्महत्याओं का आंकड़ा प्रतिवर्ष बढ़ता चला जा रहा है। किसान साहूकारी कर्ज में डूबे हुए हैं। राज्य में अपने ही किसानों को देने के लिए बिजली नहीं है।  लेकिन सरकारें नैतिकता के परे व्यावसायिक रिश्तों को तवज्जो देने में जुटी हैं। बाजार में बैठे सटोरियों एवं बिचैलियों द्वारा किसानों की जिन्स से भरपूर मुनाफा कमाया जा रहा है, लेकिन उत्पादक किसान को उसकी फसल का लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है। विडम्बना देखिए, देश की मंडियों में अनाज बेचने वाले किसानों से मंडी शुल्क वसूला जाता है, जबकि विदेश से आने वाले गेहूं पर आयात शुल्क शून्य के बराबर लिया जाता है। भारी आयात के बाद अब केन्द्र सरकार ने गेहूं पर 10 फीसदी आयात शुल्क लगाने की घोषणा की हैं। पर्याप्त स्टॉक होने के बाबजूद गेहूं  आयात को बढ़ावा देना, देश के किसानों को समाप्त करने जैसा है।

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