कॉइल से डेंगू मच्छर मरें या ना मरें, मासूम बच्चों को न हो जाए दमा!
प्रोडक्ट बेचने हेतु कंपनियां अपना रही नए-नए हथकंडे, कितना घातक है अब लॉट एलेथ्रिन फार्मूला
मौत के बाद शासन होता है अलर्ट, निजात पाने का कारगर उपाय नहीं

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मच्छरों के काटने से फैलने वाली बीमारी मलेरिया एवं डेंगू का प्रकोप जब तेजी से फैलता है, तब स्वास्थ्य विभाग का अमला कुछ स्थानों पर मच्छरों को मारने की खानापूर्ति भी करता है और ये प्रक्रिया पुन: बंद भी हो जाती है। मच्छरों के लार्वा पूरी तह नष्ट नहीं किए जाते हैं और फिर मच्छरों का हमला सतत लोगों को तेज बुखार, हाथ-पैर में भारी दर्द, ठंड लगना आदि पीड़ा को भोगने को मजबूर करता रहता है। डेंगू जब हीमोरेजिक रूप ले लेता है और कुछ लोगों की मौत भी हो जाती है, तब शासन स्तर पर अलर्ट आदि घोषणाएं भी होती है, लेकिन लम्बे अर्से के बावजूद मच्छरों से निजात पाने का कोई कारगर हल नहीं ढूंढा जा सका है। डेंगू अक्सर महामारी का रूप भी लेता रहा है और अभी तक इस पर नियंत्रण के लिए कारगर वेक्सिन भी नहीं हैं, हालांकि इस दिशा में निरंतर शोध चल रहे हैं और इसका फायदा बखूबी कई कंपनियां उठा रही हैं, जो धड़ल्ले से मार्केट में नए-नए हथकंडों के साथ मच्छरों को भगाने, मारने के दावों के साथ अपने प्रोडक्ट मार्केट में ला रही हैं।
हीमोरेजिक डेंगू है काफी खतरनाक

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अचानक बिना खांसी व जुकाम के तेज बुखार, शरीर में हड्डियों में तेज दर्द होने लगता है। इसे हड्डीतोड़ बुखार भी कहते हैं। आंख के पिछले भाग में दर्द, सीने पर खसरा जैसे दाने निकलना, उल्टी होना आदि तो डेंगू के लक्षण हैं। फिजिशियन एवं कॉर्डियोलॉजिस्ट डॉ. प्रदीप मेहता के अनुसार हीमोरेजिक डेंगू में शरीर के अंदरुनी अंगों से रक्तस्राव होने लगता है, जिससे कई बार मरीज बेहोशी की स्थिति में भी आ जाता है। रक्त के साथ या बिना रक्त के उल्टी, ज्यादा प्यास, मानसिक संतुलन खोना, चिल्लाना आदि ये हीमोरेजिक डेंगू के लक्षण हैं और भारत ही नहीं पूरे विश्व में यह सर्वाधिक मौतों का कारण है।

फैलता है मादा एडिज एजिप्टाई मच्छर से

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डेंगू बीमारी, विषाणु से ग्रसित मादा एडीज एजिप्टाई मच्छर के काटने से फैलती है। ये मच्छर रुके हुए पानी में तेजी से पनपते हैं। घरों में कूलर, ड्रम, जार, बाल्टी, टैंक, पानी के हौज आदि जहां भी पानी एकत्र है और ऐसा पानी कुछ दिन भी रुकता है तो इन्हें पनपने का अवसर मिलता है। हीमोरेजिक डेंगू में रोगी में रक्त प्लेटीनेट्स की संख्या बढ़ाने के लिए प्लेटीनेट्स की अतिरिक्त मात्रा देना आवश्यक होती है। कई बार इस बीमारी में दर्द निवारक दवा का अधिक डोज भी रक्तस्राव का कारण बन जाता है। इस दौरान शरीर में पानी की मात्रा और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करना भी जरूरी होता है। मच्छरों के काटने से ही मलेरिया भी तेजी से फैलने वाली बीमारी है, इसमें मरीज को तेज ठंड के साथ बुखार आता है। मलेरिया एवं सामान्य डेंगू की स्थिति में त्वरित रूप से इलाज से नियंत्रण हो जाता है, लेकिन हीमोरेजिक डेंगू की गंभीर स्थिति जानलेवा होती है।
मच्छर मरेंगे या बच्चों को होगा दमा?

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मॉस्किटों कॉइल्स, मॉस्किटों रिपेलेन्ट्स जो लिक्विड रूप में अथवा इलेक्ट्रॉनिक आदि स्वरूप में बाजार में आ रहे हैं। इन कंपनियों ने हाल ही में डेंगू के बढ़ते प्रकोप का फायदा उठाने हेतु अब यह प्रचार शुरू कर दिया है कि डी ट्रांस एलेथ्रिन फार्मूला से डेंगू मच्छरों को मार सकते हैं। अब इस तरह के प्रचार कितने सच हैं, इसकी जांच पहले से ही हो जाना जरूरी है, अन्यथा इस तरह के प्रलोभनकारी विज्ञापनों से लोगों की जेबों पर बड़ा डाका पड़ जाए, अर्थात लोगों का करोड़ों-अरबों रुपए ऐसी कंपनियां लूट लें, इससे पहले ही मच्छरों को मारने की सत्यता सिद्ध होना चाहिए। अधिकांशत: ऐसे उत्पादों से मच्छर मरते नहीं हैं, अपितु इनके खतरनाक धुएं के प्रभाव से भागते हैं, लेकिन इनका प्रभाव खत्म होते ही फिर डेरा जमा लेते हैं। अब अधिक समय तक ये धुआं नवजात शिशुओं का तो एक तरह से दम ही घोटता है, हालांकि इसका असर धीमे जहर के रूप में होता है, जो बाद में दमे का रूप ले लेता है।
नहीं वापरें तो क्या करें..?

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गुडनाइट, ऑलआउट, मार्टिन आदि के अलावा फॉस्ट ट्रेक आदि अलग-अलग तरह के कई ब्रांड आज बाजार में हैं। मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी मलेरिया एवं जानलेवा डेंगू से कैसे बचा जाए, यह सवाल भी अहम है। डॉक्टरों की सलाह अनुसार तो जब तक कारगर वेक्सिन उपलब्ध नहीं है, तो शिशुओं की सुरक्षा हेतु तो कारगर विकल्प मच्छरदानी है। घरों में जहां जमा पानी निकालना संभव न हो, वहां मोबिल ऑइल या मिट्टी का तेल थोड़ी मात्रा में डालने पर पानी की सतह पर तेल की परत बनती है, उससे मच्छरों के लार्वा की श्वसन क्रिया बाधित होने से यह मर जाता है। गांवों में पशु रखने के बाड़ों एवं नम अंधेरी जगहों में कीटनाशकों का छिड़काव जरूरी है, वो भी सावधानी से। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में भी ऐसी जगहों पर मच्छरों को नष्ट करने की सतत मुहिम चलाई जा सकती है। लोगों को भी ऐसे कपड़े पहनने चाहिए, जिससे हाथ-पैरों सहित पूरा शरीर ठीक से ढंका रहे। इस प्रकार के उपायों से मच्छरों के प्रकोप से बचा जा सकता है।

कोई भी कीटनाशक सुरक्षित नहीं

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वैश्विक प्रोटेक्शन एजेंसी ईपीए ने स्पष्ट कहा है कि कोई भी कीटनाशक सुरक्षित नहीं है। सभी के घातक दुष्प्रभाव मानव शरीर पर पड़ते हैं। छोटे बच्चों पर इनका गंभीर असर होता है, यही कारण है कि बच्चों की पहुंच से दूर रखने की हिदायतें भी दी जाती है। त्वचा, आंखों पर बुरे प्रभाव के साथ ही ये दिमागी कमजोरी का भी कारण बनते हैं। डिपार्टमेंट ऑफ मालेक्यूलर फार्मेकोलॉजी बॉयोलॉजिकल केमिस्ट्री शिकागों ने भी शोध में पाया कि पायरेथ्राइड न्यूरोलॉजिकल डेमेज का बड़ा कारण है और एलेथ्रिन भी उसका ही एक स्वरूप है, अत: ऐसे में इसके दुष्प्रभावों से बचा नहीं जा सकता।

स्वास्थ्य विभाग का अमला ले जवाबदारी

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स्वास्थ्य विभाग के अमले को कम से कम घरों के बाहरी क्षेत्र में मच्छरों को नष्ट करने का सघन अभियान चलाना चाहिए। शासन से इसके लिए फंड भी मिलता है, लेकिन इसका कितना सदुपयोग हो रहा है और कितना फंड अधिकारियों की जेबों में जा रहा है, यह सोच का विषय है। यही बड़ी विडम्बना है कि लोग मजबूरी वश बाहर से घरों में घुसने वाले मच्छरों के कारण भी बीमारियों का शिकार होने पर मजबूर हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत के अभियान को नेताओं, अधिकारियों ने जैसे कचरा बिखेरकर झाडू लगाने का नाटक करने तक सीमित कर दिया है।

इंदौर में आया था जेट तब भी मचा था हल्ला!

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वर्ष 1985 में इंदौर के एक उद्योगपति स्व. एस.के. मतलानी ने मलेशिया की यात्रा के बाद मच्छरों के काटने से बचाने हेतु रिपेलेन्ट्स मेट्स बनाने का निर्णय लिया था, उन्होंने जेट होम केयर प्रोडक्ट्स लि. के नाम से स्थापित कंपनी के साथ जेट ब्रांड नाम से मेट बनाया और उस दौर में इस ब्रांड को उनकी दूरदर्शी सोच के साथ इतनी जबरदस्त सफलता मिली कि कई अन्य कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। जेट ब्रांड की अभूतपूर्व सफलता का श्रेय तो श्री मतलानी को जाता है, हालांकि यह ब्रांड कई गुना ऊंचे दामों पर बाद में मेसर्स गोदरेज सारा लि. ने खरीद लिया था। उस समय 30 लाख के निवेश से शुरू यह ब्रांड का ट्रेडमार्क भले ही 30 करोड़ रु. में बिका और उसी दौर में गुडनाइट, फिर अन्य कई ऐसे प्रोडक्ट्स की बाढ़ आ गई। तब भी यह सवाल उठा था कि मच्छरों को भगाने वाले ये उत्पाद कितने सुरक्षित हैं। इनके धुएं के घातक प्रभावों से नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य पर क्या गंभीर असर नहीं पड़ेगा, जो धुआं मच्छरों को भगा रहा है, तो उसके जहरीले तत्व बच्चे के मासूम फेफड़ों को किस कदर प्रभावित कर रहे हैं। उस दौर में भी उल्लेख किया गया था कि ऐसे उत्पादों पर कीटनाशक एक्ट के तहत यह लिखा जाए कि ये स्वास्थ्य के लिए घातक भी हो सकते हैं। तब काफी हल्ला भी मचा था और कई कंपनियों ने फिर इस तरह का प्रचार विज्ञापनों में किया था कि हम जापान से लाया सब्सिट्यूट उपयोग कर रहे हैं और इसका धुआं सुरक्षित है, जबकि तब भी ये असत्य था और इतने अर्से बाद आज भी ये स्वास्थ्य की दृष्टि से सेफ प्रोडक्ट्स है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
मॉस्किटो कॉइल्स रिपेलेन्ट्स की भरमार

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डेंगू के लिए वेक्सिन की उपलब्धता न होने से ही भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मॉस्किटों कॉइल्स, रिपेलेन्ट्स की भरमार है। विकसित देश इनके दुष्प्रभावों के प्रति ज्यादा सतर्क हैं और इस तरह के प्रोडक्ट्स ज्यादातर विकासशील देशों में खपाते जा रहे हैं। इन उत्पादों में मच्छरों को भगाने, चैन, सुकून की नींद आदि दावों के बाद अब तो डेंगू मच्छरों को मारने का फार्मूला लेकर भी कंपनियां मैदान में हैं। अरबों रुपयों का यह मार्केट तेजी से फल-फूल रहा है, जबकि इनसे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
कॉइल की कैसे हुई शुरुआत

वर्ष 1890 में जापान के एक कापारी इलिचीरा इयामा ने इसकी शुरुआत की। पहले टिकिया (बार) टाइप मॉस्किटों स्टिक्स लाई गई, वो 40 मिनट तक जलती थी। वर्ष 1895 में स्टिक को लम्बी करने के साथ घुमावदार आकार दिया गया। 1902 में स्पाइरल शेप में मॉस्किटो रिपेलेन्ट आई और 1957 तक यही तरीका प्रयोग में लाया जाता रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डेनहान जॉ पुंजी कुक लि. ने चीन एवं थाइलैंड में पायरिथ्रम पावडर मटेरियल्स का उपयोग किया, जिसे क्रिसेन्टेमम प्लांट से प्राप्त कर पावडर स्वरूप दिया जाता है। इसी के साथ पायरिथिरिन्स एक्सट्रेक्ट तैयार किया गया। एलेथ्रिन डी ट्रांस भी पहला सिंथेटिक पायरेथ्राइड है। एस्बायोथ्रिन भी एलेथ्रिन का स्वरूप है। पायरेथ्राइड की ऑक्सीडेशन जाति को बढ़ाने हेतु विभिन्न रसायनों का उपयोग भी होने लगा।
एक कॉइल का धुआं 51 सिगरेट के बराबर

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मॉस्किटों कॉइल्स के धुएं से मच्छर भागने के मामले में जो कुछ भी सफलता मिली हो, लेकिन इसके कारण वर्ष 1999 में साऊथ कोरिया में 3 मंजिला भवन में आगजनी की भी बड़ी घटना हुई थी एवं उस समय 23 लोग मारे गए थे, जिनमें 19 बच्चे शामिल थे, हालांकि ये असावधानी कही जा सकती है, लेकिन एक कॉइल का धुआं उस समय 51 जलती सिगरेटों के धुएं के बराबर खतरनाक पाया था। इससे समझा जा सकता है कॉइल का धुआं कितना खतरनाक है।
50 फीसदी फैफड़ों का कैंसर

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एक शोध में ताइवान में पाया गया कि सिगरेट की बजाय 50 प्रतिशत फैफड़ों के कैंसर का कारण ये मॉस्किटों कॉइल्स रही हैं। इनका धुआं ज्यादा खतरनाक पाया गया है।
श्वसन तंत्र पर बुरा प्रभाव

मॉस्किटों कॉइल्स से निकलने वाला धुआं छोटे बच्चों के श्वसन तंत्र को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह स्थिति उस समय ही पाई गई थी और अधिक समय तक इसके धुएं के संपर्क में रहने से अस्थमा की शिकायतें भी बढऩे लगी। विभिन्न शोध में यह भी सिद्ध हुआ कि पायरेथ्राइड तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। लीवर पर प्रभाव के साथ प्रतिरोधक शक्ति (इम्युन सिस्टम) पर भी इसके विपरीत प्रभाव पाए गए। वर्ष 1999 में सिनाई स्कूल ऑफ मेडिसिन के अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर का भी ये कारण रहा है। थायरेथ्राइड के दो समूह में से एक में मच्छरों को मारने की क्षमता अत्यंत कमजोर एवं दूसरे समूह में कुछ अधिक तो रही, लेकिन ऐसे कीटनाशक कृषि क्षेत्र में उपयोग किए जाने लगे। मच्छरों को मारने के लिए सामान्यत: प्रयोग किया जाने वाला डीडीटी (डाईक्लोरो डाइफिनायल ड्राई क्लोरोइथेन) का उपयोग तो घरों के बाहर छिड़काव हेतु किया जात था, लेकिन मच्छरदानियों में भी इसका मामूली सा उपयोग विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुरक्षित माना, जबकि पायरेथ्राइड चूंकि उच्चस्तरीय टॉक्सिक होने से इसका उपयोग उस पानी में प्रतिबंधित हुआ, जहां मछलिया थीं। प्रोटेक्शन एजेंसी ईपीए ने इसे प्रतिबंधित किया था।

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