जब कानून अस्पष्ट हो तो न्याय कैसे मिलेगा…

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नए आर्थिक सुधारों को लागू करने का समय था। बहुराष्ट्रीय व देशी वित्तीय और कार्पोरेट ताकतों के दबावों के चलते सरकार चेक बाउंस होने पर धारा 138 के तहत एक आपराधिक कृत्य मानते हुए उसे कानून में परिवर्तित कर दिया। आज इसके  भयावह परिणाम सामने आ रहे हैं। इस नए कानून का फायदा गैरकानूनी तरीके से सूदखोरी करने वाले बड़े पैमाने पर उठा रहे हैं। इस कानून के नाम पर खुलेआम ब्लैकमेलिंग हो रही है, लोगों का मानसिक, शारीरिक व आर्थिक शोषण इस हद तक किया जा रहा है कि लोग असमय मौत को गले लगा रहे हैं। इनकी बेनामी शर्तों व आपराधिक दबावों यहां तक कि औरतों के साथ शारीरिक शोषण तक की घिनौनी हरकत कर रहे हैं और यह सब हो रहा है कानून की आड़ में। कोरे चेक व स्टांप पर मनमानी रकम भरकर न्यायालय में इस कानून के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज करवाने की धमकी देकर।  इस तरह के अपराध की मौजूदा स्थिति यह है कि सूदखोर सबूतों के सहारे छल करने का अपराध करता है और वह भी कानून और अदालत के संरक्षण में! इस सूदखोर को दंडित करने और भले लोगों को इस अपराध से बचाने का कोई साधन अभी न कानून के पास है और न वकीलों के पास। वे मौजूदा कानून के दायरे में इसके हल तलाशते हैं। वे केवल मौखिक सबूत पेश कर सकते हैं, जो कि सूदखोर के पास उपलब्ध सबूतों के सामने कमजोर सिद्ध होते हैं। कोई यह पूछने वाला नहीं है कि कि वह आपको देने के लिए उस दिन रुपया कहां से लाया है। यह रकम ब्लैकमनी है या राजनीतिक आकाओं की है या भ्रष्टाचार से जुटाई गई रकम है? या उसके स्वयं के द्वारा अर्जित वैधानिक आय है? क्या इस रकम पर इनकम टैक्स अदा किया गया है? या फिर वो इनकम टैक्स की चोरी कर रहा है? लाखों रुपए की इन रकमों का नगद लेन-देन क्या भारत के वित्तीय कानूनों के मुताबिक अपराध नहीं है? क्या सूदखोर के पास ब्याज पर रुपए देने का वैधानिक लायसेंस है या नहीं? बिना इन तथ्यों को संज्ञान में लिए न्यायालय फैसले दे रहे हैं, क्योंकि उनकी मजबूरी है। अदालतें कानून के मुताबिक फैसले देती हैं, उन्हें देना पड़ता है। वे कानून का पालन करती हैं, न्याय नहीं। वास्तव में यह कानून वित्तीय संस्थाओं की सुविधा के लिए बनाया गया है।  जिसका लाभ सूदखोर लोग खूब उठा रहे हैं। यह कानून ही गलत है, लेकिन इसका बड़े पैमाने पर विरोध नहीं हो रहा है। इस कानून के जरिए सूदखोर बड़े पैमाने पर ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं।

धारा 138

(निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट)

 में अपराध क्या है?

धारा 138 कहती है कि यदि कोई व्यक्ति किसी ‘कर्ज की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहनÓ के लिए किसी को चेक देता है और वह चेक यदि खाते में धन की कमी या व्यवस्था न होने के कारण बिना भुगतान के वापस लौटा दिया जाता है तो यह माना जाएगा कि चेक प्रदाता ने अपराध किया है, जो दो वर्ष के कारावास या चेक की राशि से दोगुनी राशि तक के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकेगा, लेकिन तभी जबकि चेक जारी होने की तिथि के छह माह की अथवा चेक की वैधता की इससे कम अवधि में बैंक में प्रस्तुत किया गया हो। चेकधारक ने चेक प्रदाता को चेक बाउंस होने की सूचना प्राप्त होने के 30 दिनों में चेक की राशि का भुगतान करने के लिए लिखित में सूचित किया हो और ऐसी सूचना मिलने के 15 दिनों के भीतर चेक प्रदाता ने चेक की राशि का भुगतान नहीं किया हो।

यहां ‘कर्ज की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहनÓ का अर्थ ऐसा दायित्व है, जो कानून द्वारा लागू किए जाने योग्य है, लेकिन धारा 139 में यह भी लिखा गया है कि  ‘जब तक इसके विपरीत प्रमाणित न कर दिया जाए, तब तक यह माना जाएगा कि चेक ‘कर्ज की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहनÓ के लिए ही दिया गया था।  यहां यह साबित करने का दायित्व है कि चेक ‘कर्ज की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहनÓ के लिए था, तथ्यों को साबित करने के सामान्य सिद्धांत के विपरीत चेक प्रदाता पर डाल दिया गया है। इस तरह के मामलों में अपराध साबित करना बहुत ही आसान है। इसके लिए परिवादी चेकधारक को केवल चेक, चेक को बैंक में प्रस्तुत करने की रसीद, बैंक से चेक के बाउंस होने की सूचना, चेक की राशि को अदा करने के लिए दी गई सूचना की प्रति और उसकी रसीद को अदालत में प्रस्तुत करने और चेकधारक का खुद का उक्त दस्तावेजों को प्रमाणित करते हुए बयान रिकॉर्ड कराना मात्र पर्याप्त है।

 अपराध साबित होने पर न्यूनतम सजा एक रुपया जुर्माना भी हो सकती है और अधिकतम  2 वर्ष तक का कारावास और साथ में चेक की राशि से दोगुनी राशि तक का जुर्माना हो सकती है। आमतौर पर छह माह से एक वर्ष तक का कारावास और उसके साथ चेक राशि के समान राशि से दोगुनी राशि तक के कारावास की सजा देने का प्रचलन चल पड़ा है।  इस प्रचलन से कर्जा और धन वसूलने वालों की चांदी हो गई है। उन्होंने धन वसूली का दीवानी मुकदमे का मार्ग त्याग दिया और हर कोई धारा 138 के अंतर्गत फौजदारी मुकदमे का सहारा लेने लगा। नतीजा जो हुआ कि फौजदारी अदालतें इस तरह के मुकदमों से पट गईं। वास्तविकता है कि किसी व्यक्ति द्वारा उधार दी गई या किसी अन्य दायित्व के कारण चुकाए जाने वाली राशि का नहीं चुकाया जाना कभी भी अपराध नहीं हो सकता है। यह केवल एक व्यवहारिक दायित्व हो सकता है  और इस मामले में दीवानी अदालत ऐसी राशि और समुचित ब्याज और मुआवजा दिला सकती है, लेकिन उसके लिए कारावास की सजा देना कभी भी किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता है। अर्थदंड की राशि में से परिवादी को चेक की राशि या उससे अधिक राशि दिलाया जाना सिद्धांत रूप में भी गलत है। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि अदालतों को वसूली एजेंट नहीं बनने दिया जाएगा।

चेक बाउंस मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालय में हो

शिवराजसिंह चौहान ने न्यायालयों में वर्षों से लम्बित प्रकरणों की संख्या को कम करने के लिए नई नीति तथा विधिक परिवर्तन को आवश्यक बताया। उन्होंने कहा कि चेक बाउंस और राजस्व मामलों से जुड़े छोटे प्रकरणों का प्रारंभिक निराकरण प्रदेश के राजस्व न्यायालय के माध्यम से किया जा सकता है। इसी प्रकार मोटर व्हीकल एक्ट आदि से जुड़े प्रकरण प्रभावी पैनल्टी और चालान से ही निपटाए जा सकते हैं। श्री चौहान नई दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में बोल रहे थे। कुछ वर्ष पहले मुंबई उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि गैर लाइसेंसधारी सूदखोर कर्जदार से कर्ज की अदायगी के तौर पर मिला चेक बाउंस होने की स्थिति में फौजदारी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकते। मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ में न्यायमूर्ति पीआर बोरकार ने कहा बिना लाइसेंस के सूद पर पैसा देने संबंधी कारोबार करने वाला कोई व्यक्ति कर्ज वसूली के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकता।

One thought on “चेक बाउंस कानून की आड़ में ब्लैकमेलिंग”
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