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अन्य आकर्षण

  • जहांगीर महल,
  • राज महल,
  • राम राजा मंदिर,
  • राय परवीन महल,
  • लक्ष्मीनारायण मंदिर,
  • चतुर्भुज मंदिर,
  • फूलबाग,
  • सुन्दर महल।

आजकल राजा तो रहे नहीं, केवल उनकी स्मृतियाँ रह गई हैं। आज उनके महल पयर्टन स्थल के रूप में उभर रहे हैं। ओरछा की विरासत यहाँ के पत्थरों में कैद है। आने वाली पीढिय़ों को यहाँ की महान धरोहर से परिचित होना आवश्यक है।
ओरछा का शाब्दिक अर्थ है गुप्त स्थान

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ओरछा में राजाओं की स्मृति में बनी 14 छत्रियाँ हैं, जो बेतवा नदी के किनारे कंचनघाट पर हैं। ये मुख्य रूप से गुम्बद वाली तथा घुमावदार हैं। इनमें बुंदेलखण्ड के राजा-महाराजाओं का अस्तित्व संरक्षित है। यहाँ आप वास्तुकला के प्रतीक, बुंदेलखंड राज्य के महल, किले, भव्य मंदिर तथा इस राज्य की संस्कृति से जुड़ी प्रतिमाएं व चित्रकला पर देख सकते हैं। ओरछा की नींव बुंदेला राजपूत सरदार रुद्रप्रताप ने रखी थी। ओरछा में प्राय: भीड़ कम दिखाई देती है। यहाँ पर्यटक आसानी से घूम सकते हैं। राजाओं के महल तथा मंदिर अभी भी नवीनतम लगते हैं। छत्रियाँ ओरछा के इतिहास का अभिन्न अंग हैं।
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में स्थित ओरछा मध्य काल में परिहार राजाओं की राजधानी थी। परिहार राजाओं के बाद ओरछा चन्देलों के अधिकार में रहा। चन्देल राजाओं के पराभव के बाद ओरछा श्रीहीन हो गया। उसके बाद बुंदेलों ने ओरछा को राजधानी बनाया और इसने पुन: अपना गौरव प्राप्त किया। वर्तमान ओरछा को बसाने वाले राजा रुद्रप्रताप (1501-1531 ई.) थे। 1531 ई. में इस नगर की स्थापना की गई और किले के निर्माण में आठ साल लगे। ओरछा के महल भारतीचन्द के समय में 1539 ई. में बने और राजधानी भी इसी वर्ष पुरानी राजधानी गढ़कुंडार से ओरछा लाई गई।

Jahangir-Mahal-Orchha

अकबर के शासनकाल में यहाँ के राजा मधुकर शाह थे, जिनके साथ मुगल सम्राट ने कई युद्ध किए थे। जहाँगीर ने वीरसिंहदेव बुंदेला को, जो ओरछा राज्य की बड़ौनी जागीर के स्वामी थे, पूरे ओरछा राज्य की गद्दी दी थी। वीरसिंहदेव ने ही अकबर के शासनकाल में जहाँगीर के कहने से अकबर के विद्वान दरबारी अबुल फजल की हत्या करवा दी थी। शाहजहाँ ने बुन्देलों से कई लड़ाइयाँ लड़ीं, किंतु अंत में जुझार सिंह को ओरछा का राजा स्वीकार कर लिया गया। बुंदेलखंड की लोक-कथाओं का नायक हरदौल वीरसिंहदेव का छोटा पुत्र एवं जुझार सिंह का छोटा भाई था। औरंगजेब के राज्यकाल में छत्रसाल की शक्ति बुंदेलखंड में बढ़ी हुई थी। ओरछा की रियासत अन्त तक बुंदेलखंड में अपना विशेष महत्व रखती आई है। यहाँ के राजाओं ने हिन्दी के कवियों को सदा प्रश्रय दिया है। महाकवि केशवदास वीरसिंहदेव के राजकवि थे।
इस जगह की पहली और सबसे रोचक कहानी एक मंदिर की है। दरअसल, यह मंदिर भगवान राम की मूर्ति के लिए बनवाया गया था, लेकिन मूर्ति स्थापना के वक्त यह अपने स्थान से हिली नहीं। इस मूर्ति को मधुकर शाह के राज्यकाल (1554-92) के दौरान उनकी रानी (अयोध्या) से लाई थीं। चतुर्भुज मंदिर बनने से पहले इसे कुछ समय के लिए महल में स्थापित किया गया, लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया। इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर। आज इस महल के चारों ओर शहर बसा है और राम नवमी पर यहां हजारों श्रद्धालु इक_े होते हैं। वैसे, भगवान राम को यहां भगवान मानने के साथ यहां का राजा भी माना जाता है, क्योंकि उस मूर्ति का चेहरा मंदिर की ओर न होकर महल की ओर है। मंदिर के पास एक बागान है, जिसमें स्थित काफी ऊंचे दो मीनार (वायु यंत्र) आकर्षण का केन्द्र हैं। इन्हें सावन-भादो कहा जाता है। इनके नीचे बनी सुरंगों को शाही परिवार आने-जाने के लिए इस्तेमाल करता था। इन स्तंभों के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि वर्षा ऋतु में हिंदू कैलेंडर के अनुसार सावन खत्म होने और भादो के शुभारंभ के समय ये दोनों स्तंभ आपस में जुड़ जाते थे। हालांकि इसके बारे में पुख्ता सबूत नहीं हैं। इन मीनारों के नीचे जाने के रास्ते बंद कर दिए गए हैं व अनुसंधान का कोई रास्ता नहीं है।

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इन मंदिरों को दशकों पुराने पुल से पार कर शहर के बाहरी इलाके में ‘रॉयल एन्क्लेवÓ (राजनिवास) है। यहां चार महल- जहांगीर महल, राज महल, शीश महल और इनसे कुछ दूरी पर बना राय परवीन महल है। इनमें से जहांगीर महल के किस्से सबसे ज्यादा मशहूर हैं, जो मुगल-बुंदेला दोस्ती का प्रतीक है। कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने अबुल फजल को शहजादे सलीम (जहाँगीर) को काबू करने के लिए भेजा था, लेकिन सलीम ने बीर सिंह की मदद से उसका कत्ल करवा दिया। इससे खुश होकर सलीम ने ओरछा की कमान बीर सिंह को सौंप दी थी। वैसे, ये महल बुंदेलाओं की वास्तुशिल्प के प्रमाण हैं। खुले गलियारे, पत्थरों वाली जाली का काम, जानवरों की प्रतिमाएं, बेल-बूटे जैसी तमाम बुंदेला वास्तुशिल्प की विशेषताएं यहां देखी जा सकती हैं।
अब बेहद शांत दिखने वाले ये महल अपने जमाने में ऐसे नहीं थे। यहां रोजाना होने वाली नई हलचल से उपजी कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर हैं। इन्हीं में से एक है हरदौल की कहानी, जो जुझार सिंह (1627-34) के राज्य काल की है। दरअसल, मुगल जासूसों की साजिशभरी कथाओं के कारण इस राजा को शक हो गया था कि उसकी रानी से उसके भाई हरदौल के साथ सम्बन्ध हैं। लिहाजा उसने रानी से हरदौल को ज़हर देने को कहा। रानी के ऐसा न कर पाने पर खुद को निर्दोष साबित करने के लिए हरदौल ने खुद ही जहर पी लिया और त्याग की नई मिसाल कायम की।
बुंदेलाओं का राजकाल 1783 में खत्म होने के साथ ही ओरछा भी गुमनामी के घने जंगलों में खो गया और फिर यह स्वतंत्रता संग्राम के समय सुर्खियों में आया। दरअसल, स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद यहां के एक गांव में आकर छिपे थे। आज उनके ठहरने की जगह पर एक स्मृति चिह्न भी बना है।

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