आय से अधिक संपत्ति के छापे और दर्ज होने वाले मुकदमें से जुड़े संवैधानिक और वैधानिक सवाल!?

मध्यप्रदेश सरकार ने सन 1997 में एक आदेश के तहत केंद्रीय कानून पीसी एक्ट 1988 में संशोधन करते हुए आरोपी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मतलब अभियोजन स्वीकृति देने का अधिकार मध्यप्रदेश लॉ एंड लेगीस लेचर विभाग को दे दिया और आरोपी के विभाग से उसके बारे में किसी भी तरह का अभिमत लेना भी आवश्यक नहीं किया गया! यह व्यवस्था सिर्फ राज्य सरकार के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए है!?

इंदौर। (री-डिस्कवर इंडिया न्यूज) सिर्फ वेतन से प्राप्त आय में से 40 फीसदी घटाकर बची हुई कुल आय से अधिक संपत्ति वो भी 10 फीसदी से ज्यादा का मतलब कि वो सरकारी अधिकारी भ्रष्टाचार का आरोपी है भले ही अतिरिक्त संपत्ति उसने ऋण लेकर खरीदी हो! या उसके परिवार के किसी सदस्य या संबंधी की हो!? ये कैसा कानून है
बिना किसी भ्रष्टाचार या रिश्वत की शिकायत के रिटायरमेंट के 4-5 साल पहले आय से अधिक संपत्ति के छापे मारकर लंबे चलने वाले मुकदमें दर्ज करना!? और मुकदमें का फैसला आने से पहले ही सभी अचल संपत्ति जब्त करने के कानून किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के न सिर्फ संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण है वरन उसे उम्र के इस पड़ाव में सामाजिक और पारिवारिक रूप से लज्जित, बेइज्जत, शर्मसार और खाक में मिलाने वाला कृत्य और अस्पष्ट कानून है!?
कोई कर्मचारी अपने पद पर रह कर यदि लंबे समय तक भ्रष्टाचार करता है तो इसकी जानकारी उसके नियोक्ता मतलब वह विभाग जिसने उसे पद पर रखा है या जिस विभाग को उसे पद से हटाने का अधिकार होगा उसे व उसके उच्च अधिकारियों को जरूर पता होता होगा! इसलिए विभाग को भ्रष्टाचार मुक्त और सुचारू रूप से चलाने के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों पर लगाम रखने तथा सबसे महत्वपूर्ण किसी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के खिलाफ अपराधिक मुकदमें की कारवाई कर उसे बेइज्जत और परेशान न किया जाय इसके लिए केंद्रीय कानून भ्रष्टाचार निवारण एक्ट 1988 की धारा 19 मे स्पष्ट है कि किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज करने से पहले उस अधिकारी या कर्मचारी को नियुक्त करने वाले या उसे पद से मुक्त करने के लिए सक्षम विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है बिना संबंधित विभाग से अनुमति प्राप्त किए किसी भी तरह की न्यायाललीन कारवाई नहीं की जा सकती है भारत के किसी भी न्यायालय में, लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने सन 1997 में एक आदेश के तहत केंद्रीय कानून पीसी एक्ट 1988 में संशोधन करते हुए आरोपी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मतलब अभियोजन स्वीकृति देने का अधिकार मध्यप्रदेश लॉ एंड लेगीस लेचर विभाग को दे दिया और आरोपी के विभाग से उसके बारे में किसी भी तरह का अभिमत लेना भी आवश्यक नहीं किया गया! यह व्यवस्था सिर्फ राज्य सरकार के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए है!? वहीं केंद्र सरकार और ढ्ढ्रस्, ढ्ढक्कस् अधिकारीयों के लिए उनके नियुक्त करने वाले विभाग या उन्हें पद से मुक्त करने वाले विभाग से ही अनुमति लेना आवश्यक है! क्या यह दो तरह का पक्षपाती कानून नहीं है?
क्या बिना किसी भ्रष्टाचार या रिश्वत की शिकायत के किसी सरकारी अधिकारी के 20-25 साल की नौकरी के बाद उसके और उसके परिवार की संपत्ति को सिर्फ उस सरकारी अधिकारी के वेतन से प्राप्त होने वाली आय से अर्जित संपत्ति में से 40 फीसदी काट कर बची हुई कुल आय से अधिक संपत्ति को उसके द्वारा पद का दुरुपयोग कर अवैध तरीके से कमाई गई आय से अर्जित की गई संपत्ति मानना और उस संपत्ति को जब्त कर लेने का कानून किसी व्यक्ति के संविधान से प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है!?
रिटायरमेंट के मात्र 4 से 5 सालों के पहले पडऩे वाले इन पुलिसिया छापों में उस संपत्ति को भी उस अधिकारी की भ्रष्टाचार की आय से जोड़ दिया जाता है जो उसने बैंक या अन्य वित्तीय संस्थानों या प्राइवेट ऋण के रूप में प्राप्त की है!? संपत्ति के मूल्य निर्धारण की संपूर्ण प्रक्रिया महज आकलन पर आधारित होती है! लोकायुक्त और श्वह्रङ्ख के पुलिस अधिकारी कोई आर्थिक अपराधों के विशेषज्ञ नहीं होते हैं वो भी थानों से ही पोस्टिंग पर इन विभागों में आते हैं!? कई अधिकारी और कर्मचारियों पर तो मात्र कुछ लाख रुपए की संपत्ति को उसके वेतन से प्राप्त होने वाली कुल आय से अधिक आय मानकर मुकदमे दर्ज किए गए हैं!? यदि आप को लगता है इस कानून की वजह से आप के साथ ना इंसाफी हो रही है तो आप ह्म्द्गस्रद्बह्यष्श1द्गह्म् द्बठ्ठस्रद्बड्ड द्यद्गद्दड्डद्य ष्द्गद्यद्य से मिल सकते हैं।

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